आज किसी के साथ हेडगेवार हॉस्पिटल जाना पड़ा. एक बार तो लगा ही नही की ये कोई हॉस्पिटल है. अंदर का महोल ऐसा था कि जैसे किसी छोटे से शहेर की किसी छोटी सी डिसपेनसरी मे आया हूँ. लगा ही नही की ये देश की राजधानी का एक बड़ा हॉस्पिटल है.
सबसे पहली मुलाकात हुई उस डॉक्टर से जो की कासुआलिटी मे उपस्थित था. उसका बोलने का लहज़ा ऐसा था की जैसे पत्थर मार रहा हो. उसके कहने पर हम एक दूसरे वॉर्ड मे गए. उधर हमारे पर्पस का कोई डॉक्टर ही नही था. शोर मचाने पर एक डॉक्टर आया लेकिन उसके आते आते एक पेशेंट भी आया जिसका शायद चार महीने पहले टाँग का ऑपरेशन हुआ था एक बाइक आक्सिडेंट के बाद और रॉड़ पड़ी थी. लेकिन उसकी हड्डी ग़लत जुड़ी हुई थी जिस कारण उसको भारी तकलीफ़ हो रही थी. उस पेशेंट का कहना था की प्राइवेट हॉस्पिटल 75 हज़ार माँग रहे हैं जो की उसके पास नही हैं.
खैर मेरे लहजे से डॉक्टर्स को कुछ शक हो गया और वो थोड़ा आक्टिव हो कर काम करने लगे. हमारे साथ गए पेशेंट का भी ट्रीटमेंट हुआ लेकिन डॉक्टर खुद परेशान था. बोलने लगा की वो हड्डी ग़लत इसलिए जुड़ी होगी क्योंकि हॉस्पिटल मे रिक्वाइयर्ड इन्स्ट्रुमेंट्स ही नही हैं. अब बिना इन्स्ट्रुमेंट्स और बिना प्रॉपर दवाइयों के कोई कैसे इलाज करे?
उस डॉक्टर का कहना था की OT मे काफ़ी समय से तीन डॉक्टर कम हैं और इंटरव्यू भी नही हो रहे. लोगों ने बताया की माइनर OT बंद पड़ी है और ऑपरेशन के समय चलने वाली स्क्रीन भी खराब है. डॉक्टर्स का कहना था की दवाइयाँ होती ही नही हैं तो लिखें क्या. लेकिन अगर कोई मीडीया वाला आके पूछेगा तो रिज़र्व मे रखी दवाइयों मे से निकल कर दिखा देंगे की दवाई तो है जबकि पेशेंट्स को देने के लिए दवाई नही है.
डॉक्टर्स का यह भी कहना था की सिर्फ़ जो दवाई उपलब्ध होती है उसीको लिखना पड़ता है चाहे उससे इलाज मे देर हो जाए. बहुत सी दवाइयाँ तो सिर्फ़ दिखाने के लिए रिज़र्व मे होती हैं, असल मे आती ही नही. लोगों का तो यह भी कहना था की एक्सपाइर होने वाली दवाइयाँ सस्ते दामों पर मंगाई जाती हैं और अक्सर वो दवाइयाँ भी उपलब्ध नही होती.
अब अगर दिल्ली सरकार के बड़े बड़े दावों के बाद भी देश की राजधानी के एक बड़े सरकारी हॉस्पिटल का यह स्टेटस है की वो किसी देहात का अस्पताल लगे तो फिर सरकार की कारय परनाली पर सवाल उठने तो लाजिमी हैं क्योंकि पेशेंट्स का तो सिर्फ़ भगवान ही मालिक है.
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