Thursday, April 25, 2019

अगर दिल्ली को पूरण राज्य का दर्जा नहीं मिल पाया तो क्या दिल्ली मे कोई भी काम नही होगा?


Times of India - This is what you need to do to get our vote - RWAs


Open the 35 year old Mandir of PD Vihar - RWAs demand


पूछो तो सही कि आख़िर दिल्ली वालों को क्या चाहिए?

दिल्ली के चुनावों मे मुद्दे भी तो दिल्ली के होने चाहिए जैसे की पोल्यूशन, ट्रॅफिक जाम, एंकरोचमेंट, वॉटर लॉगिंग, पॉट होल्स, लॅंडफिल साइट्स, गली मोहल्लों मे कूड़े के ढलाव, खुले नाले, डेंगू, चिकनगुनया, और जाने क्या क्या. 



क्या आपको नही लगता की 2019 आते आते, जो असली मुद्दे थे वो कहीं पीछे छूट गए हैं और हम लोग किसी मशीन की तरह ऑपरेट कर रहे हैं. बेशक यह सच है कि लोक सभा मे मुद्दे देश के होते हैं. लेकिन दिल्ली भी तो एक मिनी भारत है. तो फिर दिल्ली के मुद्दों को दरकिनार कैसे किया जा सकता है?

दुनिया की सबसे पोल्यूटेड कॅपिटल बनने के बाद भी कौन सी सरकार इस पर तवज़्ज़ो दे रही है? अब अगर 30 - 40,000 लोग हर साल इस पोल्यूशन से मर भी जाते हैं तो किसको फरक पड़ता है? कोई बोलता है बच्चों के लंग्ज़ खराब हो रहे हैं. कोई बोलता है बच्चों के ब्रेन श्रिंक हो रहे हैं. कोई बोलता है अगले 10 सालों मे ग्रीन हाउस इंपॅक्ट डबल हो जाएगा. 

यकीन मानीएगा, हमारी आने वाली पीडियों का तो शायद भगवान भी मालिक नही होगा, क्योंकि हम खुद अपने हाथों से उनकी कब्र खोद रहे हैं.

ट्रॅफिक जाम तो एक मामूली सी बात है. सरकारों को गाड़ियाँ बेचने से ही फ़ुर्सत नहीं है क्योंकि जाने कितना रेवेन्यू तो इन्ही की सेल्स से या फिर इनमे डालने वाले डीजल व पेट्रोल से मिलता है. और अब तो आपके घर के बाहर खड़ी आपकी गाड़ी पर भी पार्किंग चार्जस लगाने की बात चल रही है. यानी की आम के आम और गुठलियों के भी दाम.

हर गली मोहल्ले की छोटी बड़ी मार्केट्स मे एंक्रोचमेंट हो चुका है. लोगों ने फुटपाथ ही कब्ज़े मे कर लिए हैं. पैदल चलने तक की जगह नही है. सब देख रहे हैं मगर देख कर भी चुप हैं. अब फ़ेसबुक या फिर whatsApp से टाइम बचे तो कोई इस शहर के बारे मे भी सोचे.

दिल्ली के चारों तरफ खड़े कूड़े के सुलगते हुए पहाड़ और गली मोहल्लों मे कूड़े के खुले ढलाव, खुले नाले, फील ही नही होने देते की हम देश की राजधानी मे रहते हैं. और सोने पे सुहागा, पिछले चार सालों मे जाने कितनी बार सॅनिटेशन स्ट्राइक. जाने कितनी बार गली गली मे कचरे के ढेर, बदबू, डेंगू, चिकनगुनया और ना जाने क्या क्या.

गर्मी मे दिल्ली के लोग एक एक बूँद सॉफ पानी के लिए तरस जाते हैं और बरसातें आते ही दिल्ली की हर गली मोहल्ले मे नदियाँ बहने लगती हैं. छोटे छोटे बच्चे भी दो दो फिट के पानी मे से होकर स्कूल जाते हैं.

कहीं सड़कों मे खड्डे तो कहीं खद्डों मे सड़क. सरकारी अस्पतालों का बुरा हाल, पब्लिक ट्रांसपोर्ट चरमरा रहा है. सालों से चलने वाली दुकानों पर सीलिंग का डंडा. वन टाइम पार्किंग चार्जस लेने के बाद भी कहीं पार्किंग उपलब्ध नहीं. महिला सुरक्षा तो आज भी किसी कोने मे पड़ी हुई सिसक रही है.

आख़िर कौन जवाब देगा कि बिजली के फिक्स्ड चार्जस के नाम पर क्यों डिस्कोमस को मुनाफ़ा दिया जा रहा है? दिल्ली सरकार, पोवेर डिपार्टमेंट या फिर DERC के पास भी हमारे सवालों के जवाब क्यों नहीं हैं? क्यों दिल्ली के CM इस मुद्दे पर हम लोगों से मिलने मे कुरेज करते हैं? 


अफ़सोस इस बात का है कि हमारे नेताओं मे से किसी को दिल्ली चाहिए तो किसी को दिल्ली के पूरण राज्य का दर्जा, लेकिन कोई भी यह पूछ कर राज़ी नही है क़ि आख़िर दिल्ली वालों को क्या चाहिए? ऐसे मे अगर हम लोग भी अपनी आवाज़ नहीं उठाएँगे, तो सोचिए, क्या होगा इस दिल्ली का, 
क्योंकि ये नेता लोग तो सिर्फ़ अपना मेनीफेस्टो डिक्लेर करके ही अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्ति पा लेते हैं?

Saturday, April 6, 2019

Why Delhi is the most polluted capital of the world ?

हेडगेवार हॉस्पिटल - पेशेंट्स का तो सिर्फ़ भगवान ही मालिक है

आज किसी के साथ हेडगेवार हॉस्पिटल जाना पड़ा. एक बार तो लगा ही नही की ये कोई हॉस्पिटल है. अंदर का महोल ऐसा था कि जैसे किसी छोटे से शहेर की किसी छोटी सी डिसपेनसरी मे आया हूँ. लगा ही नही की ये देश की राजधानी का एक बड़ा हॉस्पिटल है.


सबसे पहली मुलाकात हुई उस डॉक्टर से जो की कासुआलिटी मे उपस्थित था. उसका बोलने का लहज़ा ऐसा था की जैसे पत्थर मार रहा हो. उसके कहने पर हम एक दूसरे वॉर्ड मे गए. उधर हमारे पर्पस का कोई डॉक्टर ही नही था. शोर मचाने पर एक डॉक्टर आया लेकिन उसके आते आते एक पेशेंट भी आया जिसका शायद चार महीने पहले टाँग का ऑपरेशन हुआ था एक बाइक आक्सिडेंट के बाद और रॉड़ पड़ी थी. लेकिन उसकी हड्डी ग़लत जुड़ी हुई थी जिस कारण उसको भारी तकलीफ़ हो रही थी. उस पेशेंट का कहना था की प्राइवेट हॉस्पिटल 75 हज़ार माँग रहे हैं जो की उसके पास नही हैं.

खैर मेरे लहजे से डॉक्टर्स को कुछ शक हो गया और वो थोड़ा आक्टिव हो कर काम करने लगे. हमारे साथ गए पेशेंट का भी ट्रीटमेंट हुआ लेकिन डॉक्टर खुद परेशान था. बोलने लगा की वो हड्डी ग़लत इसलिए जुड़ी होगी क्योंकि हॉस्पिटल मे रिक्वाइयर्ड इन्स्ट्रुमेंट्स ही नही हैं. अब बिना इन्स्ट्रुमेंट्स और बिना प्रॉपर दवाइयों के कोई कैसे इलाज करे?

उस डॉक्टर का कहना था की OT मे काफ़ी समय से तीन डॉक्टर कम हैं और इंटरव्यू भी नही हो रहे. लोगों ने बताया की माइनर OT बंद पड़ी है और ऑपरेशन के समय चलने वाली स्क्रीन भी खराब है. डॉक्टर्स का कहना था की दवाइयाँ होती ही नही हैं तो लिखें क्या. लेकिन अगर कोई मीडीया वाला आके पूछेगा तो रिज़र्व मे रखी दवाइयों मे से निकल कर दिखा देंगे की दवाई तो है जबकि पेशेंट्स को देने के लिए दवाई नही है. 

डॉक्टर्स का यह भी कहना था की सिर्फ़ जो दवाई उपलब्ध होती है उसीको लिखना पड़ता है चाहे उससे इलाज मे देर हो जाए. बहुत सी दवाइयाँ तो सिर्फ़ दिखाने के लिए रिज़र्व मे होती हैं, असल मे आती ही नही. लोगों का तो यह भी कहना था की एक्सपाइर होने वाली दवाइयाँ सस्ते दामों पर मंगाई जाती हैं और अक्सर वो दवाइयाँ भी उपलब्ध नही होती.

अब अगर दिल्ली सरकार के बड़े बड़े दावों के बाद भी देश की राजधानी के एक बड़े सरकारी हॉस्पिटल का यह स्टेटस है की वो किसी देहात का अस्पताल लगे तो फिर सरकार की कारय परनाली पर सवाल उठने तो लाजिमी हैं क्योंकि पेशेंट्स का तो सिर्फ़ भगवान ही मालिक है.